Friday, June 25, 2010

Nisha Nimantran - Hai Paavas ki raat andheri - Dr. Bachchan

है पावस की रात अँधेरी!

विद्युति की है द्युति अम्बर में,
जुगुनूँ की है ज्योति अधर में,
नभ-मंड्ल की सकल दिशाएँ तम की चादर ने हैं घेरी!
है पावस की रात अँधेरी!

मैंने अपने हास चपल से,
होड़ कभी ली थी बादल से!
किंतु गगन का गर्जन सुनकर आज धड़कती छाती मेरी!
है पावस की रात अँधेरी

है सहसा जिह्वा पर आई,
’घन घमंड’ वाली चौपाई,
जहाँ देव भी काँप उठे थे, क्यों लज्जित मानवता मेरी!
है पावस की रात अँधेरी!

Nisha Nimantran - Ye papihe ki ratan hai - Dr. Bachchan

यह पपीहे की रटन है!

बादलों की घिर घटाएँ,
भूमि की लेतीं बलाएँ,
खोल दिल देतीं दुआएँ- देख किस उर में जलन है!
यह पपीहे की रटन है!

जो बहा दे, नीर आया,
आग का फिर तीर आया,
वज्र भी बेपीर आया- कब रुका इसका वचन है!
यह पपीहे की रटन है!


यह न पानी से बुझेगी,
यह न पत्थर से दबेगी,
यह न शोलों से डरेगी, यह वियोगी की लगन है!
यह पपीहे की रटन है!

Nisha Nimantran - Dekh raat hai kali kitni - Dr. Bachchan

देख, रात है काली कितनी!

आज सितारे भी हैं सोए,
बादल की चादर में खोए,
एक बार भी नहीं उठाती घूँघट घन-अवगुंठन वाली!
देख, रात है काली कितनी!

आज बुझी है अंतर्ज्वाला,
जिससे हमने खोज निकाला
था पथ अपना अधिक तिमिर में और चली थे चाल निराली!
देख, रात है काली कितनी!

क्या उन्मत्त समीरण आता,
मानव कर का दीप बुझाता,
क्या जुगुनूँ जल-जल करता है तरु के नीड़ों की रखवाली!
देख, रात है काली कितनी!

Nisha Nimantran - Aaj ghire hain baadal saathi - Dr. Bachchan

आज घिरे हैं बादल, साथी!

भरा हृदय नभ विगलित होकर
आज बिखर जाएगा भूपर,
चार नयन भी साथ गगन के आज पड़ेंगे ढल-ढल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!

आँसू का बल हमें कभी था
आँचल गीला किया जभी था
जग जीवन की सब सीमाएँ ढहीं-बहीं थीं गल-गल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!

अब आँसू उर ज्वाल बुझाते
तो भी हम कुछ सुख पा जाते!
इन जल की बूँदों से उर के घाव उठेंगे जल-जल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!

Nisha Nimantran - Tune kya sapna dekha hai - Dr. Bachchan

तूने क्या सपना देखा है?

पलक रोम पर बूँदें सुख की,
हँसती सी मुद्रा कुछ मुख की,
सोते में क्या तूने अपना बिगड़ा भाग्य बना देखा है।
तूने क्या सपना देखा है?

नभ में कर क्यों फैलाता है?
किसको भुज में भर लाता है?
प्रथम बार सपने में तूने क्या कोई अपना देखा है?
तूने क्या सपना देखा है?

मृगजल से ही ताप मिटा ले
सपनों में ही कुछ रस पा ले
मैंने तो तन-मन का सपनों में भी बस तपना देखा है!
तूने क्या सपना देखा है?

Nisha Nimantran - Saathi so na, kar kuch baat - Dr. Bachchan

साथी, सो न, कर कुछ बात!

बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मंद 'मरमर',
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल स्नात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!

बात करते सो गया तू,
स्वप्‍न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!

पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!

Nisha Nimantran - Koi rota door kahi par - Dr. Bachchan

कोई रोता दूर कहीं पर!

इन काली घड़ियों के अंदर,
यत्न बचाने के निष्फल कर,
काल प्रबल ने किसके जीवन का प्यारा अवलम्ब लिया हर?
कोई रोता दूर कहीं पर!

ऐसी ही थी रात घनेरी,
जब सुख की, सुखमा की ढेरी
मेरी लूट नियति ने ली थी, करके मेरा तन मन जर्जर!
कोई रोता दूर कहीं पर!

मित्र पड़ोसी क्रंदन सुनकर,
आकर अपने घर से सत्वर,
क्या न इसे समझाते होंगे चार, दुखी का जीवन कहकर!
कोई रोता दूर कहीं पर!

Nisha Nimantran - Vishw saara so raha hai - Dr. Bachchan

विश्व सारा सो रहा है!

हैं विचरते स्वप्न सुंदर,
किंतु इसका संग तजकर,
अगम नभ की शून्यता का कौन साथी हो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!

अवनि पर सर, सरित, निर्झर,
किन्तु इनसे दूर जाकर,
कौन अपने घाव अंबर की नदी में धो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!

न्याय न्यायाधीश भूपर,
पास, पर, इनके न जाकर,
कौन तारों की सभा में दुःख अपना रो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!

Nisha Nimantran - Mujhse chand kaha karta hai - Dr. Bachchan

मुझ से चाँद कहा करता है--

चोट कड़ी है काल प्रबल की,
उसकी मुस्कानों से हल्की,
राजमहल कितने सपनों का पल में नित्य ढहा करता है|
मुझ से चाँद कहा करता है--

तू तो है लघु मानव केवल,
पृथ्वी-तल का वासी निर्बल,
तारों का असमर्थ अश्रु भी नभ से नित्य बहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है--

तू अपने दुख में चिल्लाता,
आँखो देखी बात बताता,
तेरे दुख से कहीं कठिन दुख यह जग मौन सहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है--

Nisha Nimantran - Dekho toot raha hai taara - Dr. Bachchan

देखो, टूट रहा है तारा!

नभ के सीमाहीन पटल पर
एक चमकती रेखा चलकर
लुप्त शून्य में होती-बुझता एक निशा का दीप दुलारा!
देखो, टूट रहा है तारा!

हुआ न उडगन में क्रंदन भी,
गिरे न आँसू के दो कण भी
किसके उर में आह उठेगी होगा जब लघु अंत हमारा!
देखो, टूट रहा है तारा!

यह परवशता या निर्ममता
निर्बलता या बल की क्षमता
मिटता एक देखता रहता दूर खड़ा तारक-दल सारा!
देखो, टूट रहा है तारा!

Nisha Nimantran - Saathi dekh ulkapaat - Dr. Bachchan

साथी, देख उल्कापात!

टूटता तारा न दुर्बल,
चमकती चपला न चंचल,
गगन से कोई उतरती ज्योति वह नवजात!
साथी, देख उल्कापात!

बीच ही में क्षीण होकर,
अंतरिक्ष विलीन होकर
कर गई कुछ और पहले से अँधेरी रात!
साथी, देख उल्कापात!

मैं बहुत विपरीत इसके
तम-प्रपूरित गीत जिसके,
हो उठेगी दीप्ति उसके मौन के पश्चात!
साथी, देख उल्कापात!

Nisha Nimantran - Kehte hain taare gaate hain - Dr. Bachchan

कहते हैं, तारे गाते हैं!

सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमने कान लगाया,
फिर भी अगणित कंठों का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं!
कहते हैं, तारे गाते हैं!

स्वर्ग सुना करता यह गाना,
पृथ्वी ने तो बस यह जाना,
अगणित ओस-कणों में तारों के नीरव आँसू आते हैं!
कहते हैं, तारे गाते हैं!

ऊपर देव, तले मानवगण,
नभ में दोनों, गायन-रोदन,
राग सदा ऊपर को उठता, आँसू नीचे झर जाते हैं!
कहते हैं, तारे गाते हैं!

Nisha Nimantran - Mera gagan se sanlaap - Dr. Bachchan

मेरा गगन से संलाप!

दीप जब दुनिया बुझाती,
नींद आँखों में बुलाती,
तारकों में जा ठहरती दृष्टि मेरी आप!
मेरा गगन से संलाप!

बोल अपनी मूक भाषा
कुछ मुझे देते दिलासा,
किंतु जब कुछ पूछता मैं, देखते चुपचाप!
मेरा गगन से संलाप!

एक ही होता इशारा,
टूटता रह-रह सितारा,
एक उत्तर सर्व प्रश्नों का महासंताप!
मेरा गगन से संलाप!

Nisha Nimantran - Aa gin daalein nabh ke taare - Dr. Bachchan

आ, गिन डालें नभ के तारे!

मिलकर हमको खींच रहे जो,
श्रम-सींकर से सींच रहे जो,
कण-कण उस पथ का पड़ने को जिसपर हैं पद बद्ध हमारे!
आ, गिन डालें नभ के तारे!

उठ अपने बल पर घमंड कर,
देख एक मानव के ऊपर
आवश्यक शासन करने को कितने चिर चैतन्य सितारे!
आ, गिन डालें नभ के तारे!

देख मनुज की छाती विस्तृत,
दग्ध जिसे करने को संचित
किए गए हैं अंबर भर में इतने चिर ज्वलंत अंगारे!
आ, गिन डालें नभ के तारे!

Nisha Nimantran - Saathi ghar ghar aaj diwali - Dr. Bachchan

साथी, घर-घर आज दिवाली!

फैल गयी दीपों की माला
मंदिर-मंदिर में उजियाला,
किंतु हमारे घर का, देखो, दर काला, दीवारें काली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!

हास उमंग हृदय में भर-भर
घूम रहा गृह-गृह पथ-पथ पर,
किंतु हमारे घर के अंदर डरा हुआ सूनापन खाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!

आँख हमारी नभ-मंडल पर,
वही हमारा नीलम का घर,
दीप मालिका मना रही है रात हमारी तारोंवाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!

Nisha Nimantran - Aao baithein taru ke neeche - Dr. Bachchan

आओ, बैठें तरु के नीचे!

कहने को गाथा जीवन की,
जीवन के उत्थान पतन की
अपना मुँह खोलें, जब सारा जग है अपनी आँखें मींचे!
आओ, बैठें तरु के नीचे!

अर्ध्य बने थे ये देवल के
अंक चढ़े थे ये अंचल के
आओ, भूल इसे, आँसू से अब निर्जीव जड़ों को सींचे!
आओ, बैठें तरु के नीचे!

भाव भरा उर शब्द न आते,
पहुँच न इन तक आँसू पाते,
आओ, तृण से शुष्क धरा पर अर्थ रहित रेखाएँ खींचे!
आओ, बैठें तरु के नीचे!

Nisha Nimantran - Koi paar nadi ke gaata - Dr. Bachchan

कोई पार नदी के गाता!

भंग निशा की नीरवता कर,
इस देहाती गाने का स्वर,
ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता!
कोई पार नदी के गाता!

होंगे भाई-बंधु निकट ही,
कभी सोचते होंगे यह भी,
इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता!
कोई पार नदी के गाता!

आज न जाने क्यों होता मन,
सुन कर यह एकाकी गायन,
सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता!
कोई पार नदी के गाता!

Nisha Nimantran - Ho madhur sapna tumhara - Dr. Bachchan

हो मधुर सपना तुम्हारा!

पलक पर यह स्नेह चुम्बन
पोंछ दे सब अश्रु के कण,
नींद की मदिरा पिलाकर दे भुला जग-क्रूर-कारा!
हो मधुर सपना तुम्हारा!

दे दिखाई विश्व ऐसा,
है रचा विधि ने न जैसा,
दूर जिससे हो गया है बहिर अंतर्द्वन्द सारा!
हो मधुर सपना तुम्हारा!

कंठ में हो गान ऐसा,
था सुना जग ने न जैसा,
और स्वर से स्वर मिलाकर गा रहा हो विश्व सारा!
हो मधुर सपना तुम्हारा!

Nisha Nimantran - Aao so jayein, mar jayein - Dr. Bachchan

आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!

स्वप्न-लोक से हम निर्वासित,
कब से गृह सुख को लालायित,
आओ, निद्रा पथ से छिपकर हम अपने घर जाएँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!

मौन रहो, मुख से मत बोलो,
अपना यह मधुकोष न खोलो,
भय है कहीं हृदय के मेरे घाव न ये भर जाएँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!

आँसू भी न बहाएँगे हम,
जग से क्या ले जाएँगे हम?-
यदि निर्धनों के अंतिम धन ये जल कण भी झर जाएँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!

Nisha Nimantran - Aa tere - Dr. Bachchan taru mein chhip jau

आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!

मिल न सका स्वर जग क्रंदन का,
और मधुर मेरे गायन का,
आ तेरे उर की धड़कन से अपनी धड़कन आज मिलाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!

जिसे सुनाने को अति आतुर
आकुल युग-युग से मेरा उर,
एक गीत अपने सपनों का, आ, तेरी पलकों पर गाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!

फिर न पड़े जगती में गाना,
फिर न पड़े जगती में जाना,
एक बार तेरी गोदी में सोकर फिर मैं जाग न पाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!

Nisha Nimantran - Deep abhi jalne de bhai - Dr. Bachchan

दीप अभी जलने दे, भाई!

निद्रा की मादक मदिरा पी,
सुख स्वप्नों में बहलाकर जी,
रात्रि-गोद में जग सोया है, पलक नहीं मेरी लग पाई!
दीप अभी जलने दे, भाई!

आज पड़ा हूँ मैं बनकर शव,
जीवन में जड़ता का अनुभव,
किसी प्रतीक्षा की स्मृति से ये पागल आँखें हैं पथराई!
दीप अभी जलने दे, भाई!

दीप शिखा में झिल-मिल, झिल-मिल,
प्रतिपल धीमे-धीमे हिल-हिल,
जीवन का आभास दिलाती कुछ मेरी तेरी परछाईं!
दीप अभी जलने दे, भाई!

Nisha Nimantran - Tumne jeevan taru ko ghera - Dr. Bachchan

तम ने जीवन-तरु को घेरा!

टूट गिरीं इच्छा की कलियाँ,
अभिलाषा की कच्ची फलियाँ,
शेष रहा जुगुनूँ की लौ में आशामय उजियाला मेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!

पल्लव मरमर गान कहाँ अब!
कोकिल पंचम तान कहाँ अब!
कौन गया निश्चय से सोने, देखेगा फिर जाग सवेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!

स्वप्नों ही ने मुझको लूटा
स्वप्नों का, हा, मोह न छूटा,
मेरे नीड़ नयन में आओ, करलो, प्रेयसि, रैन, सवेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!

Nisha Nimantran - Aa sone se pehle gaa lein - Dr. Bachchan

आ, सोने से पहले गा लें!

जग में प्रात पुनः आएगा,
सोया जाग नहीं पाएगा,
आँख मूँद लेने से पहले, आ, जो कुछ कहना कह डालें!
आ, सोने से पहले गा लें!

दिन में पथ पर था उजियाला,
फैली थी किरणों की माला
अब अँधियाला देश मिला है, आ, रागों का द्वीप जलालें!
आ, सोने से पहले गा लें!

काल-प्रहारा से उच्छश्रृंखल,
जीवन की लड़ियाँ विश्रृंखल,
इन्हें जोड़ने को, आ, अपने गीतों की हम गाँठ लगालें!
आ, सोने से पहले गा लें!

Nisha Nimantran - Swapn bhi chhal jagran bhi - Dr. Bachchan

स्वप्न भी छल, जागरण भी!

भूत केवल जल्पना है,
औ’ भविष्यत कल्पना है,
वर्तमान लकीर भ्रम की! और है चौथी शरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!

मनुज के अधिकार कैसे!
हम यहाँ लाचार ऐसे,
कर नहीं इनकार सकते, कर नहीं सकते वरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!

जानता यह भी नहीं मन--
कौन मेरी थाम गर्दन,
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!

Nisha Nimantran - Ab nisha deti nimantran - Dr. Bachchan

अब निशा देती निमंत्रण!

महल इसका तम-विनिर्मित,
ज्वलित इसमें दीप अगणित!
द्वार निद्रा के सजे हैं स्वप्न से शोभन-अशोभन!
अब निशा देती निमंत्रण!

भूत-भावी इस जगह पर
वर्तमान समाज होकर
सामने है देश-काल-समाज के तज सब नियंत्रण!
अब निशा देती निमंत्रण!

सत्य कर सपने असंभव!--
पर, ठहर, नादान मानव!--
हो रहा है साथ में तेरे बड़ा भारी प्रवंचन!
अब निशा देती निमंत्रण!

Nisha Nimantran - Vaayu behti sheet nishthur - Dr. Bachchan

वायु बहती शीत-निष्ठुर!

ताप जीवन श्वास वाली,
मृत्यु हिम उच्छवास वाली।
क्या जला, जलकर बुझा, ठंढा हुआ फिर प्रकृति का उर!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!

पड़ गया पाला धरा पर,
तृण, लता, तरु-दल ठिठुरकर
हो गए निर्जीव से--यह देख मेरा उर भयातुर!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!

थी न सब दिन त्रासदाता
वायु ऐसी--यह बताता
एक जोड़ा पेंडुकी का डाल पर बैठा सिकुड़-जुड़!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!

Nisha Nimantran - Girje se ghante ki tan tan - Dr. Bachchan

गिरजे से घंटे की टन-टन!

मंदिर से शंखों की तानें,
मस्जिद से पाबंद अजानें
उठ कर नित्य किया करती हैं अपने भक्तों का आवाहन!
गिरजे से घंटे की टन-टन!

मेरा मंदिर था, प्रतिमा थी,
मन में पूजा की महिमा थी,
किंतु निरभ्र गगन से गिरकर वज्र गया कर सबका खंडन!
गिरजे से घंटे की टन-टन!

जब ये पावन ध्वनियाँ आतीं,
शीश झुकाने दुनिया जाती,
अपने से पूछा करता मैं, करूँ कहाँ मैं किसका पूजन!
गिरजे से घंटे की टन-टन!

Nisha Nimantran - Deepak par parvane aaye - Dr. Bachchan

दीपक पर परवाने आए!

अपने पर फड़काते आए,
किरणों पर बलखाते आए,
बड़ी-बड़ी इच्छाएँ लाए, बड़ी-बड़ी आशाएँ लाए!
दीपक पर परवाने आए!

जले ज्वलित आलिंगन में कुछ,
जले अग्निमय चुंबन में कुछ,
रहे अधजले, रहे दूर कुछ, किंतु न वापस जाने पाए!
दीपक पर परवाने आए!

पहुँच गई बिस्तुइया सत्वर
लिए उदर की ज्वाल भयंकर,
बचे प्रणय की ज्वाला से जो, उदर-ज्वाल के बीच समाए!
दीपक पर परवाने आए!

Nisha Nimantran - Yeh paavas ki saanjh rangeeli - Dr. Bachchan

यह पावस की सांझ रंगीली!

फैला अपने हाथ सुनहले
रवि, मानो जाने से पहले,
लुटा रहा है बादल दल में अपनी निधि कंचन चमकीली!
यह पावस की सांझ रंगीली!

घिरे घनों से पूर्व गगन में
आशाओं-सी मुर्दा मन में,
जाग उठा सहसा रेखाएँ-लाल, बैगनी, पीली, नीली!
यह पावस की सांझ रंगीली!

इंद्र धनुष की आभा सुंदर
साथ खड़े हो इसी जगह पर
थी देखी उसने औ’ मैंने--सोच इसे अब आँखें गीली!
यह पावस की सांझ रंगीली!

Nisha Nimantran - Hai Yeh patjhad ki shaam sakhe - Dr. Bachchan

है यह पतझड़ की शाम, सखे!

नीलम-से पल्लव टूट गए,
मरकत-से साथी छूट गए,
अटके फिर भी दो पीत पात जीवन-डाली को थाम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!

लुक-छिप करके गानेवाली,
मानव से शरमानेवाली,
कू-कू कर कोयल मांग रही नूतन घूँघट अविराम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!

नंगी डालों पर नीड़ सघन,
नीड़ों में हैं कुछ-कुछ कंपन,
मत देख, नज़र लग जाएगी; यह चिड़ियों के सुखधाम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!

Nisha Nimantran - Prabal jhanjhavat sathi - Dr. Bachchan

प्रबल झंझावात, साथी!

देह पर अधिकार हारे,
विवशता से पर पसारे,
करुण रव-रत पक्षियों की आ रही है पाँत, साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!

शब्द ’हरहर’, शब्द ’मरमर’--
तरु गिरे जड़ से उखड़कर,
उड़ गए छत और छप्पर, मच गया उत्पात, साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!

हँस रहा संसार खग पर,
कह रहा जो आह भर भर--
’लुट गए मेरे सलोने नीड़ के तॄण पात।’ साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!

Nisha Nimantran - Tum toofan samajh paoge - Dr. Bachchan

तुम तूफ़ान समझ पाओगे?

गीले बादल, पीछे रजकण,
सूखे पत्‍ते, रूखे तृण घन
लेकर चलता करता 'हरहर'- इसका गान समझ पाओगे?
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?

गंध-भरा यह मंद पवन था,
लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्‍वप्‍न महान, समझ पाओगे?
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?

तोड़-मरोड़ विटप लतिकाऍं,
नोच-खसोट कुसुम-कलिकाऍं,
जाता है अज्ञात दिशा को! हटो विहंगम, उड़ जाओगे!
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?

Nisha Nimantran - Ab nisha nabh se utarti - Dr. Bachchan

अब निशा नभ से उतरती!

देख, है गति मन्द कितनी
पास यद्यपि दीप्ति इतनी,
क्या सबों को जो ड़राती वह किसी से आप ड़रती?
जब निशा नभ से उतरती!

थी किरण अगणित बिछी जब,
पथ न सूझा! गति कहाँ अब?-
कुछ दिखाता दीप अंबर, कुछ दिखाती दीप धरती!
अब निशा नभ से उतरती!

था उजाला जब गगन में
था अँधेरा ही नयन में,
रात आती है हृदय में भी तिमिर अवसाद भरती।
अब निशा नभ से उतरती!

Nisha Nimantran - Andhkar badta jata hai - Dr. Bachchan

अंधकार बढ़ता जाता है!

मिटता अब तरु-तरु में अंतर,
तम की चादर हर तरुवर पर,
केवल ताड़ अलग हो सबसे अपनी सत्ता बतलाता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!

दिखलाई देता कुछ-कुछ मग,
जिसपर शंकित हो चलते पग,
दूरी पर जो चीजें उनमें केवल दीप नजर आता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!

ड़र न लगे सुनसान सड़क पर,
इसीलिए कुछ ऊँचा स्वर कर
विलग साथियों से हो कोई पथिक, सुनो, गाता आता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!

Nisha Nimantran - Udit sandhya ka sitara - Dr. Bachchan

उदित संध्या का सितारा!

थी जहाँ पल पूर्व लाली,
रह गई कुछ रेख काली,
अब दिवाकर का गया मिट तेज सारा, ओज सारा!
उदित संध्या का सितारा!

शोर स्यारों ने मचाया,
’(अंधकार) हुआ’--बताया,
रात के प्रहरी उलूकों ने उठाया स्वर कुठारा!
उदित संध्या का सितारा!

काटती थी धार दिन भर
पाँव जिसके तेज चलकर,
चौंकना मत, अब गिरेगा टूट दरिया का कगारा!
उदित संध्या का सितारा!

Nisha Nimantran - Chal basi sandhya gagan se - Dr. Bachchan

चल बसी संध्या गगन से!

क्षितिज ने साँस गहरी
और संध्या की सुनहरी
छोड़ दी सारी, अभी तक था जिसे थामे लगन से!
चल बसी संध्या गगन से!

हिल उठे तरु-पत्र सहसा,
शांति फिर सर्वत्र सहसा
छा गई, जैसे प्रकृति ने ली विदा दिन के पवन से!
चल बसी संध्या गगन से!

बुलबुलों ने पाटलों से,
षट्पदों ने शतदलों से
कुछ कहा--यह देख मेरे गिर पड़े आँसू नयन से!
चल बसी संध्या गगन से!

Nisha Nimantran - Beet chali sandhya ki vela - Dr. Bachchan

बीत चली संध्‍या की वेला!

धुंधली प्रति पल पड़नेवाली
एक रेख में सिमटी लाली
कहती है, समाप्‍त होता है सतरंगे बादल का मेला!
बीत चली संध्‍या की वेला!

नभ में कुछ द्युतिहीन सितारे
मांग रहे हैं हाथ पसारे-
'रजनी आए, रवि किरणों से हमने है दिन भर दुख झेला!
बीत चली संध्‍या की वेला!

अंतरिक्ष में आकुल-आतुर,
कभी इधर उड़, कभी उधर उड़,
पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछड़ा पंछी एक- अकेला!
बीत चली संध्‍या की वेला!

Nisha Nimantran - Sandhya sindoor lutati hai - Dr. Bachchan

संध्‍या सिंदूर लुटाती है!

रंगती स्‍वर्णिम रज से सुदंर
निज नीड़-अधीर खगों के पर,
तरुओं की डाली-डाली में कंचन के पात लगाती है!
संध्‍या सिंदूर लुटाती है!

करती सरि‍ता का जल पीला,
जो था पल भर पहले नीला,
नावों के पालों को सोने की चादर-सा चमकाती है!
संध्‍या सिंदूर लुटाती है!

उपहार हमें भी मिलता है,
श्रृंगार हमें भी मिलता है,
आँसू की बूंद कपोलों पर शोणित की-सी बन जाती है!
संध्‍या सिंदूर लुटाती है!

Nisha Nimantran - Sathi sanjh lagi ab hone - Dr. Bachchan

साथी, सांझ लगी अब होने!

फैलाया था जिन्हें गगन में,
विस्तृत वसुधा के कण-कण में,
उन किरणों को अस्तांचल पर पहँच लगा है सूर्य सँजोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!

खेल रही थी धूलि कणों में,
लोट लिपट तरु-गृह-चरणों में,
वह छाया, देखो, जाती है प्राची में अपने को खोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!

मिट्टी से था जिन्हें बनाया,
फूलों से था जिन्हें सजाया,
खेल घिरौंदे छोड़ पथों पर चले गये हैं बच्चे सोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!

Nisha Nimantran - Sathi ant diwas aaya - Dr. Bachchan

साथी, अन्त दिवस का आया!

तरु पर लौट रहे हैं नभचर,
लौट रहीं नौकाएँ तट पर,
पश्चिम की गोदी में रवि की श्रात किरण ने आश्रय पाया!
साथी, अन्त दिवस का आया!

रवि-रजनी का आलिंगन है,
संध्या स्नेह मिलन का क्षण है,
कात प्रतीक्षा में गृहिणी ने, देखो, घर-घर दीप जलाया!
साथी, अन्त दिवस का आया!

जग के विस्तृत अंधकार में,
जीवन के शत-शत विचार में
हमें छोड़कर चली गई, लो, दिन की मौन संगिनी छाया!
साथी, अन्त दिवस का आया!

Nisha Nimantran - Ek Kahani - Dr. Bachchan

एक कहानी
(१)
कहानी है सृष्टि के प्रारम्भ की। पृथ्वी पर मनुष्य था, मनुष्य में हृदय था, हृदय में पूजा की भावना थी, पर देवता न थे। वह सूर्य को अर्ध्यदान देता था, अग्नि को हविष समर्प्ति कर्ता था, पर वह इतने से ही संतुष्ट न था। वह कुछ और चाहता था।
उसने ऊपर की ओर हाथ उठाकर प्रार्थना की, ’हे स्वर्ग ! तूने हमारे लिए पृथ्वी पर सब सुविधाएँ दीं, पर तूने हमारे लिए कोई देवता नहीं दिया। तू देवताओं से भरा हुआ है, हमारे लिए एक देवता भेज दे जिसे हम अपनी भेंट चढा सकें, जो हमारी भेंट पाकर मुस्कुरा सके, जो हमारे हृदय की भावनाओं को समझ सके। हमें एक साक्षात देवता भेज दे।’
पृथ्वी के बाल-काल के मनुष्य की उस प्रार्थना में इतनी सरलता थी, इतनी सत्यता थी कि स्वर्ग पसीज उठा। आकाशवाणी हुई, ’जा मंदिर बना, शरद ॠतु की पूर्णिमा को जिस समय चंद्र बिंब क्षितिज के ऊपर उठेगा उसी समय मंदिर में देवता प्रकट होंगे। जा, मंदिर बना।’ मनुष्य का हृदय आनन्द से गद्गद हो उठा। उसने स्वर्ग को बारबार प्रणाम किया।
पृथ्वी पर देवता आयेंगे!—इस प्रत्याशा ने मनुष्य के जीवन में अपरिमित स्फूर्ति भर दी। अल्पकाल में ही मन्दिर का निर्माण हो गया। चंदन का द्वार लग गया। पुजारी की नियुक्ति हो गई। शरद पूर्णिमा भी आ गई। भक्तगण सवेरे से ही जलपात्र और फूल अक्षत के थाल ले-लेकर मंदिर के चारों ओर एकत्र होने लगे। संध्या तक अपार जन समूह इकट्ठा हो गया। भक्तों की एक आँख पूर्व क्षितिज पर थी और दूसरी मंदिर के द्वार पर। पुजारी को आदेश था कि देवता के प्रकट होते ही वह शंखध्वनि करे और मंदिर के द्वार खोल दे।
पुजारी देवता की प्रतीक्षा में बैठ था—अपलक नेत्र, उत्सुक मन। सहसा देवता प्रकट हो गए। वे कितने सुंदर थे, कितने सरल थे, कितने सुकुमार थे, कितने कोमल ! देवता देवता ही थे।
बाहर भक्तों ने चंद्र बिंब देख लिया था। अगणित कंठों ने एक साथ नारे लगाए। देवता की जय ! देवता की जय !- इस महारव से दशों दिशाएँ गूँज उठीं, पर मंदिर से शंखध्वनि न सुन पड़ी।
पुजारी ने झरोखे से एक बार इस अपार जनसमूह को देखा और एक बार सुंदर, सुकुमार, सरल देवता को। पुजारी काँप उठा।
समस्त जन समूह क्रुद्ध कंठस्वर से एक साथ चिल्लाने लगा, ’मंदिर का द्वार खोलो, खोलो।’ पुजारी का हाथ कितनी बार साँकल तक जा-जाकर लौट आया।
हजारों हाथ एक साथ मंदिर के कपाट पीटने लगे, धक्के देने लगे। देखते ही देखते चंदन का द्वार टूट कर गिर पड़ा, भक्तगण मंदिर में घुस पड़े। पुजारी अपनी आँखें मूँदकर एक कोने में खड़ा हो गया।
देवता की पूजा होने लगी। बात की बात में देवता फूलों से लद गए, फूलों में छिप गए, फूलों से दब गए। रात भर भक्तगण इस पुष्प राशि को बढ़ाते रहे।
और सबेरे जब पुजारी ने फूलों को हटाया तो उसके नीचे थी देवता की लाश।

(२)
अब भी पृथ्वी पर मनुष्य था, मनुष्य में हृदय था, हृदय में पूजा की भावना थी, पर देवता न थे। अब भी वह सूर्य को अर्ध्यदान देता था, अग्नि को हविष समर्पित करता था, पर अब उसका असंतोष पहले से कहीं अधिक था। एक बार देवता की प्राप्ति ने उसकी प्यास जगा दी थी, उसकी चाह बढा दी थी। वह कुछ और चाहता था।
मनुष्य ने अपराध किया था और इस कारण लज्जित था। देवता की प्राप्ति ने उसकी प्यास जगा दी थी, उसकी चाह बढा दी थी। वह कुछ और चाहता था।
मनुष्य ने अपराध किया था और इस कारण लज्जित था। देवता की प्राप्ति स्वर्ग से ही हो सकती थी, पर वह स्वर्ग के सामने जाए किस मुँह से। उसने सोचा, स्वर्ग का हॄदय महान है, मनुष्य के एक अपराध को भी क्या वह क्षमा न करेगा।
उसने सर नीचा करके कहा, ’हे स्वर्ग, हमारा अपराध क्षमा कर, अब हमसे ऐसी भूल न होगी, हमारी फिर वही प्रार्थना है—पहले वाली।’
मनुष्य उत्तर की प्रत्याशा में खड़ा रहा। उसे कुछ भी उत्तर न मिला।
बहुत दिन बीत गए। मनुष्य ने सोचा समय सब कुछ भुला देता है, स्वर्ग से फिर प्रार्थना करनी चाहिए।
उसने हाथ जोड़कर विनय की, ’हे स्वर्ग, तू अगणित देवताओं का आवास है, हमें केवल एक देवता का प्रसाद और दे, हम उन्हें बहुत सँभाल कर रक्खेंगे।’
मनुष्य का ही स्वर दिशाओं से प्रतिध्वनित हुआ। स्वर्ग मौन रहा।
बहुत दिन फिर बीत गए। मनुष्य हार नहीं मानेगा। उसका यत्न नहीं रुकेगा। उसकी आवाज स्वर्ग को पहुँचनी होगी।
उसने दृढता के साथ खड़े होकर कहा, ’हे स्वर्ग, जब हमारे हृदय में पूजा की भावना है तो देवता पर हमारा अधिकार है। तू हमार अधिकार हमें क्यों नहीं देता?’
आकाश से गड़गड़ाहट का शब्द हुआ और कई शिला खंड़ पृथ्वी पर आ गिरे।
मनुष्य ने बड़े आश्चर्य से उन्हें देखा और मत्था ठोक कर बोला, ’वाह रे स्वर्ग, हमने तुझसे माँगा था देवता और तूने हमें भेजा है पत्थर ! पत्थर !
स्वर्ग बोला, ’हे महान मनुष्य, जबसे मैंने तेरी प्रार्थना सुनी तब से मैं एक पाँव से देवताओं के द्वार-द्वार घूमता रहा हूँ। मनुष्य की पूजा स्वीकार करने का प्रस्ताव सुनकर देवता थरथर काँपते हैं। तेरी पूजा देवताओं को अस्वीकृत नहीं, असह्य है। तेर एक पुष्प जब तेरे आत्मसमर्पण की भावना को लेकर देवता पर चढता है तो उसका भार समस्त ब्रह्मांड के भार को हल्का कर देता है। तेरा एक बूँद अर्ध्य जल जब तेरे विगलित हॄदय के अश्रुओं का प्रतीक बनकर देवता को अर्पित होता है तब सागर अपनी लघुता पर हाहाकार कर उठता है। छोटे देवों ने मुझसे क्या कहा, उसे क्या बताऊँ। देवताओं में सबसे अधिक तेजोपुंज सूर्य ने कहा था, मनुष्य पृथ्वी से मुझे जल चढाता है, मुझे भय है किसी न किसी दिन मैं अवश्य ठंढा पड़ जाऊँगा और मनुष्य किसी अन्य सूर्य की खोज करेगा। हे विशाल मानव, तेरी पूजा को सह सकने की शक्ति केवल इन पाषाणों में है।’
उसी दिन से मनुष्य ने पत्थरों को पूजना आरम्भ किया था और यह जानकर हिमालय सिहर उठा था।

Nisha Nimantran - Din jaldi jaldi dhalta hai - Dr. Bachchan

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं-
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे--
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?--
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

Madhubala - Dr. Bachchan

1

मैं मधुबाला मधुशाला की,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
मैं मधु-विक्रेता को प्यारी,
मधु के धट मुझ पर बलिहारी,
प्यालों की मैं सुषमा सारी,
मेरा रुख देखा करती है
मधु-प्यासे नयनों की माला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

2

इस नीले अंचल की छाया
में जग-ज्वाला का झुलसाया
आकर शीतल करता काया,
मधु-मरहम का मैं लेपन कर
अच्छा करती उर का छाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

3

मधुघट ले जब करती नर्तन,
मेरे नुपुर की छम-छनन
में लय होता जग का क्रंदन,
झूमा करता मानव जीवन
का क्षण-क्षण बनकर मतवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

4

मैं इस आंगन की आकर्षण,
मधु से सिंचित मेरी चितवन,
मेरी वाणी में मधु के कण,
मदमत्त बनाया मैं करती,
यश लूटा करती मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

5

था एक समय, थी मधुशाला,
था मिट्टी का घट, था प्याला,
थी, किन्तु, नहीं साकीबाला,
था बैठा ठाला विक्रेता
दे बंद कपाटों पर ताला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

6

तब इस घर में था तम छाया,
था भय छाया, था भ्रम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
ऊषा का दीप लिये सर पर,
मैं आ‌ई करती उजियाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

7

सोने सी मधुशाला चमकी,
माणित दॿयॿति से मदिरा दमकी,
मधुगंध दिशा‌ओं में चमकी,
चल पड़ा लिये कर में प्याला
प्रत्येक सुरा पीनेवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

8

थे मदिरा के मृत-मूक घड़े,
थे मूर्ति सदृश मधुपात्र खड़े,
थे जड़वत प्याले भूमि पड़े,
जादू के हाथों से छूकर
मैंने इनमें जीवन डाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

9

मझको छूकर मधुघट छलके,
प्याले मधु पीने को ललके ,
मालिक जागा मलकर पलकें,
अंगड़ा‌ई लेकर उठ बैठी
चिर सुप्त विमूर्छित मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

10

प्यासे आि, मैंने आिका,
वातायन से मैंने िािका,
पीनेवालों का दल बहका,
उत्कंठित स्वर से बोल उठा,
‘कर दे पागल, भर दे प्याला!’
मैं मधुशाला की मधुबाला!

11

खॿल द्वार मदिरालय के,
नारे लगते मेरी जय के,
मिटे चिन्ह चिंता भय के,
हर ओर मचा है शोर यही,
‘ला-ला मदिरा ला-ला’!,
मैं मधुशाला की मधुबाला!

12

हर एक तृप्ति का दास यहां,
पर एक बात है खास यहां,
पीने से बढ़ती प्यास यहां,
सौभाग्य मगर मेरा देखो,
देने से बढ़ती है हाला!
मैं मधुशाला की मधुबाला!

13

चाहे जितना मैं दूं हाला,
चाहे जितना तू पी प्याला,
चाहे जितना बन मतवाला,
सुन, भेद बताती हूँ अंतिम,
यह शांत नही होगी ज्वाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

14

मधु कौन यहां पीने आता,
है किसका प्यालों से नाता,
जग देख मुझे है मदमाता,
जिसके चिर तंद्रिल नयनों पर
तनती मैं स्वपनों का जाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

15

यह स्वप्न-विनिर्मित मधुशाला,
यह स्वप्न रचित मधु का प्याला,
स्वप्निल तृष्णा, स्वप्निल हाला,
स्वप्नों की दुनिया में भूला
फिरता मानव भोलाभाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

Madhushala - Dr. Bachchan

॥हरिवंश राय बच्चन कृत मधुशाला॥

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला
पहले भोग लगा लूँ तेरा, फ़िर प्रसाद जग पाएगा
सबसे पहले तेरा स्वागत, करती मेरी मधुशाला॥१॥

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूणर् निकालूँगा हाला
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका
आज निछावर कर दूँगा मैं, तुझपर जग की मधुशाला॥२॥

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला
कभी न कण- भर ख़ाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला॥३॥

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला
' किस पथ से जाऊँ? ' असमंजस में है वह भोलाभाला
अलग- अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूँ -
' राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला॥४॥

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
' दूर अभी है ' , पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला
हिम्मत है न बढ़ूँ आगे, साहस है न फ़िरूँ पीछे
किंकतर्व्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला॥५॥

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला॥६॥

मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला
बने ध्यान ही करते- करते जब साकी साकार, सखे
रहे न हाला, प्याला साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला॥७॥

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला॥८॥

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला
फ़ेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला
ददर् नशा है इस मदिरा का विगतस्मृतियाँ साकी हैं
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आये मेरी मधुशाला॥९॥

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला
हषर्- विकंपित कर से जिसने हा, न छुआ मधु का प्याला
हाथ पकड़ लज्जित साकी का पास नहीं जिसने खींचा
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला॥१०॥

नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला
कौन अपरिचित उस साकी से जिसने दूध पिला पाला
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही
जग में आकर सवसे पहले पाई उसने मधुशाला॥११॥

सूयर् बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला
बादल बन- बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला॥१२॥

अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला
हर सूरत साकी की सूरत में परिवतिर्त हो जाती
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला॥१३॥

साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला
तारक- मणि- मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला
अगणित कर- किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते
प्रति प्रभात में पूणर् प्रकृति में मुखरित होती मधुशाला॥१४॥

साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला
जिनमें वह छलकाती लाई अधर- सुधा- रस की हाला
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए
देखो कैसें- कैसों को है नाच नचाती मधुशाला॥१५॥

वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर- सुमधुर- हाला
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला॥१६॥

चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस- रंगी हाला
मन के चित्र जिसे पी- पीकर रंग- बिरंग हो जाते
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला॥१७॥

हिम श्रेणी अंगूर लता- सी फ़ैली, हिम जल है हाला
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला
कोमल कूर- करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला॥१८॥

आज मिला अवसर, तब फ़िर क्यों मैं न छकूँ जी- भर हाला
आज मिला मौका, तब फ़िर क्यों ढाल न लूँ जी- भर प्याला
छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी- भर कर लूँ
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला॥१९॥

दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ
अब तो कर देती है केवल फ़ज़र् - अदाई मधुशाला॥२०॥

छोटे- से जीवन में कितना प्यार करूँ, पी लूँ हाला
आने के ही साथ जगत में कहलाया ' जानेवाला'
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन- मधुशाला॥२१॥

क्या पीना, निद्वर्न्द्व न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला
क्या जीना, निरिंचत न जब तक साथ रहे साकीबाला
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे
मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला॥२२॥

मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी- सी हाला!
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरूँ
सिंधु- तृषा दी किसने रचकर बिंदु- बराबर मधुशाला॥२३॥

क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुबर्ल मानव मिट्टी का प्याला
भरी हुई है जिसके अंदर कटु- मधु जीवन की हाला
मृत्यु बनी है निदर्य साकी अपने शत- शत कर फ़ैला
काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला॥२४॥

यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला
पी न होश में फ़िर आएगा सुरा- विसुध यह मतवाला
यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है
पथिक, प्यार से पीना इसको फ़िर न मिलेगी मधुशाला॥२५॥

शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला
' और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला॥२६॥

जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!॥२७॥

देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक- सी हाला
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला
' बस अब पाया! ' - कह- कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे
किंतु रही है दूर क्षितिज- सी मुझसे मेरी मधुशाला॥२८॥

हाथों में आने- आने में, हाय, फ़िसल जाता प्याला
अधरों पर आने- आने में हाय, ढलक जाती हाला
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो
रह- रह जाती है बस मुझको मिलते- मिलते मधुशाला॥२९॥

प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फ़िर क्यों हाला
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फ़िर क्यों प्याला
दूर न इतनी हिम्मत हारूँ, पास न इतनी पा जाऊँ
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला॥३०॥

मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला
मानव- बल के आगे निबर्ल भाग्य, सुना विद्यालय में
' भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला॥३१॥

उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला॥३२॥

मद, मदिरा, मधु, हाला सुन- सुन कर ही जब हूँ मतवाला
क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला॥३३॥

क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से!
मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला॥३४॥

एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी- सी हाला
भोला- सा था मेरा साकी, छोटा- सा मेरा प्याला
छोटे- से इस जग की मेरे स्वगर् बलाएँ लेता था
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!॥३५॥

मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला
प्याले में मदिरालय बिंबित करनेवाली है हाला
इस उधेड़- बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!॥३६॥

किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला
इस जगती के मदिरालय में तरह- तरह की है हाला
अपनी- अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला॥३७॥

वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला
जिसमें मैं बिंबित- प्रतिबिंबित प्रतिपल, वह मेरा प्याला
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला॥३८॥

मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला
साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला॥३९॥

कहाँ गया वह स्वगिर्क साकी, कहाँ गयी सुरभित हाला
कहाँ गया स्वपनिल मदिरालय, कहाँ गया स्वणिर्म प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फ़ूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला॥४०॥

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला
अपने युग में सबको अद्भुत ज्ञात हुआ अपना प्याला
फ़िर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!॥४१॥

कितने ममर् जता जानी है बार- बार आकर हाला
कितने भेद बता जाता है बार- बार आकर प्याला
कितने अथोर् को संकेतों से बतला जाता साकी
फ़िर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला॥४२॥

जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है
जितना ही जो रसिक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला॥४३॥

मेरी हाला में सबने पाई अपनी- अपनी हाला
मेरे प्याले में सबने पाया अपना- अपना प्याला
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा
जिसकी जैसी रूचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला॥४४॥

यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं- नहीं मादक हाला
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं- नहीं मधु का प्याला
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही
नहीं- नहीं कवि का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला॥४५॥

कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!॥४६॥

विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी- सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई
जन्म सफ़ल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला॥४७॥

बड़े- बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला
मान- दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला॥४८॥