है पावस की रात अँधेरी!
विद्युति की है द्युति अम्बर में,
जुगुनूँ की है ज्योति अधर में,
नभ-मंड्ल की सकल दिशाएँ तम की चादर ने हैं घेरी!
है पावस की रात अँधेरी!
मैंने अपने हास चपल से,
होड़ कभी ली थी बादल से!
किंतु गगन का गर्जन सुनकर आज धड़कती छाती मेरी!
है पावस की रात अँधेरी
है सहसा जिह्वा पर आई,
’घन घमंड’ वाली चौपाई,
जहाँ देव भी काँप उठे थे, क्यों लज्जित मानवता मेरी!
है पावस की रात अँधेरी!
Hindi-Kavitayein
Friday, June 25, 2010
Nisha Nimantran - Ye papihe ki ratan hai - Dr. Bachchan
यह पपीहे की रटन है!
बादलों की घिर घटाएँ,
भूमि की लेतीं बलाएँ,
खोल दिल देतीं दुआएँ- देख किस उर में जलन है!
यह पपीहे की रटन है!
जो बहा दे, नीर आया,
आग का फिर तीर आया,
वज्र भी बेपीर आया- कब रुका इसका वचन है!
यह पपीहे की रटन है!
यह न पानी से बुझेगी,
यह न पत्थर से दबेगी,
यह न शोलों से डरेगी, यह वियोगी की लगन है!
यह पपीहे की रटन है!
बादलों की घिर घटाएँ,
भूमि की लेतीं बलाएँ,
खोल दिल देतीं दुआएँ- देख किस उर में जलन है!
यह पपीहे की रटन है!
जो बहा दे, नीर आया,
आग का फिर तीर आया,
वज्र भी बेपीर आया- कब रुका इसका वचन है!
यह पपीहे की रटन है!
यह न पानी से बुझेगी,
यह न पत्थर से दबेगी,
यह न शोलों से डरेगी, यह वियोगी की लगन है!
यह पपीहे की रटन है!
Nisha Nimantran - Dekh raat hai kali kitni - Dr. Bachchan
देख, रात है काली कितनी!
आज सितारे भी हैं सोए,
बादल की चादर में खोए,
एक बार भी नहीं उठाती घूँघट घन-अवगुंठन वाली!
देख, रात है काली कितनी!
आज बुझी है अंतर्ज्वाला,
जिससे हमने खोज निकाला
था पथ अपना अधिक तिमिर में और चली थे चाल निराली!
देख, रात है काली कितनी!
क्या उन्मत्त समीरण आता,
मानव कर का दीप बुझाता,
क्या जुगुनूँ जल-जल करता है तरु के नीड़ों की रखवाली!
देख, रात है काली कितनी!
आज सितारे भी हैं सोए,
बादल की चादर में खोए,
एक बार भी नहीं उठाती घूँघट घन-अवगुंठन वाली!
देख, रात है काली कितनी!
आज बुझी है अंतर्ज्वाला,
जिससे हमने खोज निकाला
था पथ अपना अधिक तिमिर में और चली थे चाल निराली!
देख, रात है काली कितनी!
क्या उन्मत्त समीरण आता,
मानव कर का दीप बुझाता,
क्या जुगुनूँ जल-जल करता है तरु के नीड़ों की रखवाली!
देख, रात है काली कितनी!
Nisha Nimantran - Aaj ghire hain baadal saathi - Dr. Bachchan
आज घिरे हैं बादल, साथी!
भरा हृदय नभ विगलित होकर
आज बिखर जाएगा भूपर,
चार नयन भी साथ गगन के आज पड़ेंगे ढल-ढल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
आँसू का बल हमें कभी था
आँचल गीला किया जभी था
जग जीवन की सब सीमाएँ ढहीं-बहीं थीं गल-गल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
अब आँसू उर ज्वाल बुझाते
तो भी हम कुछ सुख पा जाते!
इन जल की बूँदों से उर के घाव उठेंगे जल-जल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
भरा हृदय नभ विगलित होकर
आज बिखर जाएगा भूपर,
चार नयन भी साथ गगन के आज पड़ेंगे ढल-ढल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
आँसू का बल हमें कभी था
आँचल गीला किया जभी था
जग जीवन की सब सीमाएँ ढहीं-बहीं थीं गल-गल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
अब आँसू उर ज्वाल बुझाते
तो भी हम कुछ सुख पा जाते!
इन जल की बूँदों से उर के घाव उठेंगे जल-जल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
Nisha Nimantran - Tune kya sapna dekha hai - Dr. Bachchan
तूने क्या सपना देखा है?
पलक रोम पर बूँदें सुख की,
हँसती सी मुद्रा कुछ मुख की,
सोते में क्या तूने अपना बिगड़ा भाग्य बना देखा है।
तूने क्या सपना देखा है?
नभ में कर क्यों फैलाता है?
किसको भुज में भर लाता है?
प्रथम बार सपने में तूने क्या कोई अपना देखा है?
तूने क्या सपना देखा है?
मृगजल से ही ताप मिटा ले
सपनों में ही कुछ रस पा ले
मैंने तो तन-मन का सपनों में भी बस तपना देखा है!
तूने क्या सपना देखा है?
पलक रोम पर बूँदें सुख की,
हँसती सी मुद्रा कुछ मुख की,
सोते में क्या तूने अपना बिगड़ा भाग्य बना देखा है।
तूने क्या सपना देखा है?
नभ में कर क्यों फैलाता है?
किसको भुज में भर लाता है?
प्रथम बार सपने में तूने क्या कोई अपना देखा है?
तूने क्या सपना देखा है?
मृगजल से ही ताप मिटा ले
सपनों में ही कुछ रस पा ले
मैंने तो तन-मन का सपनों में भी बस तपना देखा है!
तूने क्या सपना देखा है?
Nisha Nimantran - Saathi so na, kar kuch baat - Dr. Bachchan
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मंद 'मरमर',
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल स्नात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मंद 'मरमर',
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल स्नात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
Nisha Nimantran - Koi rota door kahi par - Dr. Bachchan
कोई रोता दूर कहीं पर!
इन काली घड़ियों के अंदर,
यत्न बचाने के निष्फल कर,
काल प्रबल ने किसके जीवन का प्यारा अवलम्ब लिया हर?
कोई रोता दूर कहीं पर!
ऐसी ही थी रात घनेरी,
जब सुख की, सुखमा की ढेरी
मेरी लूट नियति ने ली थी, करके मेरा तन मन जर्जर!
कोई रोता दूर कहीं पर!
मित्र पड़ोसी क्रंदन सुनकर,
आकर अपने घर से सत्वर,
क्या न इसे समझाते होंगे चार, दुखी का जीवन कहकर!
कोई रोता दूर कहीं पर!
इन काली घड़ियों के अंदर,
यत्न बचाने के निष्फल कर,
काल प्रबल ने किसके जीवन का प्यारा अवलम्ब लिया हर?
कोई रोता दूर कहीं पर!
ऐसी ही थी रात घनेरी,
जब सुख की, सुखमा की ढेरी
मेरी लूट नियति ने ली थी, करके मेरा तन मन जर्जर!
कोई रोता दूर कहीं पर!
मित्र पड़ोसी क्रंदन सुनकर,
आकर अपने घर से सत्वर,
क्या न इसे समझाते होंगे चार, दुखी का जीवन कहकर!
कोई रोता दूर कहीं पर!
Subscribe to:
Posts (Atom)